तहज़ीब कोई मेरी नज़र में जचेगी क्या ?
मेरी निगाह-ए-शौक़ ने देखा है लखनऊ...!!!
जी हां ये सिर्फ लखनऊ का तसव्वुर ही है जिसने शायर को मजबूर कर दिया ऐसे लाजवाब मिसरे लिखने के लिए। अदब का मरकज़ तमीज़ का शहर कुछ ऐसा है लखनऊ। वो शहर जहां आज भी सुबह फुर्सत से ख़ुदा को याद करते हुए अज़ान और आरती से होती है। जहां आज भी बड़ी शान से रोज़ाना का सफ़र रिक्शे पर होता है, जहां आज भी नफ़ासत और नज़ाकत बरक़रार है कुछ तो बात अपने में रखता है शहर-ए- लखनऊ।
आज भी सड़क पर चलते हुए लोगों कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आपको लखनवी तमीज़ और तहज़ीब की झलक देखने को मिल जायगी। आज भी यहां लोगों के दिलों में एक दूसरे के लिए मुहब्बत और अपनापन बाक़ी है। भले ही आज शहर की हवेलियां, अपार्टमेंटों में तब्दील हो गयी हों इसके बावजूद , बातचीत करने के तरीक़े में, हाव भाव में एक सभ्यता और एक संस्कृति की झलक साफ़ दिखती है।
ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि नवाबों के दौर में इस शहर ने जहां एक तरफ उम्दा तहज़ीब व तमीज़ को देखा तो वहीं दूसरी ओर मुंह में पानी ला देने वाले पकवानों व व्यंजनों को भी बढ़ावा दिया। अगर इस शहर को ज़ायके के शौकीनों का "मक्का" कहें तो कोई बड़ी बात न होगी। जैसा कि हम बता चुके हैं जहां एक ओर इस शहर ने दुनिया को एक बेशकीमती दस्तरख्वान दिया तो वहीं कला साहित्य सुर संगीत को भी ये शहर हमेशा से ही बढ़ावा देता हुआ नज़र आया।
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चाहे सितार हो, तबला हो लखनऊ में सब अपने आप में ख़ास है। लखनऊ वो शहर है जहां कथक ने अपनी आँखें खोली और दुनिया को ये बताया कि कला और संगीत मज़हब, ज़ात बिरादरी और सरहदों से परे है। तो आइये अब देर किस बात की आपको कुछ चुनिंदा तस्वीरों के ज़राए रू-ब-रू कराते हैं लखनऊ और उसके ज़ायकों से।
बड़ा इमामबाड़ा
बड़ा इमामबाड़ा, एक विशेष धार्मिक स्थल हैइसे आसिफी इमामबाड़े के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इसे 1783 में लखनऊ के नबाव आसफ- उद - दौला द्वारा बनवाया गया था। इस इमामबाड़े का शुमार लखनऊ की सबसे खूबसूरत इमारतों में होता है।
छोटा इमामबाड़ा
छोटा इमामबाड़ा लखनऊ में मौजूद एक आलिशान इमारत है जिसे हुसैनाबाद इमामबाड़ा भी कहा जाता है। इस इमामबाड़े को 1838 में मोहम्मद अली शाह के द्वारा बनवाया गया था, जो अवध के तीसरे नवाब थे। छोटे इमामबाड़े की डिजायन में गुम्बद पूरी तरह से सफेद है और बुर्ज व मीनारें चारबाग पैटर्न पर आधारित हैं। इमारत में शीशे पर किया गया काम फारसी शैली और ईरानी आर्किटेक्चर को दिखाता है।
सतखंडा
अवध के नवाब नसीर-उद-दौला ने नौ मंजिला इमारत के बारे में सोचा था, जिसका नाम वह नौखंडा रखना चाहते थे। वह चाहते थे कि यह टॉवर सबसे ऊंचा हो और दुनिया का आंठवा आश्चर्य बने, जिसे दुनिया में बेबलॉन के टॉवर या पीसा की मीनार जितनी ख्याति प्राप्त हो। सतखंडा, छोटे इमामबाड़े के पास में ही स्थित है जो फ्रैंच और इटेलियन शैली के मिश्रण से बना हुआ है आप इस इमारत में शानदार मध्ययुगीन डिजायन को देख सकते हैं।
रूमी दरवाजा
रूमी दरवाजा को तुर्कीश द्वार के नाम से भी जाना जाता है, जो 13 वीं शताब्दी के महान सूफी फकीर, जलाल-अद-दीन मुहम्मद रूमी के नाम पर पड़ा था। इस 60 फुट ऊंचे दरवाजे को सन् 1784 में नवाब आसफ - उद - दौला के द्वारा बनवाया गया था। यह द्वार अवधी शैली का एक नायाब नमूना है और इसे लखनऊ शहर के लिए प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता है। इस गेट के ऊपर नवाबों के युग में एक लैम्प रखी गई थी, जो उस युग में रात के अंधेरे में रोशनी प्रदान करती थी।
रेजीडेंसी
रेजीडेंसी, लखनऊ के सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों में से एक है, रेजीडेंसी में कई इमारतें शामिल हैं। इसका निर्माण नवाब आसफ-उद- दौला ने 1775 में शुरू किया करवाया था और 1800 ई. में इसे नवाब सादत अली खान के द्वारा पूरा करवाया गया। यह गोमती नदी के तट पर स्थित है।
ला मार्टिनियर कॉलेज
आज ला मार्टिनियर कॉलेज का शुमार लखनऊ के सबसे प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध स्कूलों में होता है। शहर में इस स्कूल की दो शाखाएं हैं जहां लड़के और लड़कियां अलग अलग शिक्षा ग्रहण करते हैं। आपको बताते चलें कि 1845 में ला मार्टिनियर बॉयज कॉलेज और 1869 में ला मार्टिनियर गर्ल्स कॉलेज की स्थापना की गयी थी। इस स्कूल को बनाने का पूरा श्रेय मेजर जर्नल क्लॉड मार्टिन को जाता है जिनके अथक प्रयास के बाद ही ये स्कूल बन सका।
अंबडेकर मेमोरियल
जब भी आप लखनऊ में हों तो डॉक्टर भीमराव अंबडेकर सामाजिक परिवर्तन स्थल जिसे आंबेडकर मेमोरियल के नाम से भी जाना जाता है। जाना न भूलें ये मेमोरियल ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, शाहू जी महाराज और बाबा साहब भीम राव अंबडेकर जैसे दलित चिंतकों और नेताओं को समर्पित है। इस पपोरे स्मारक को लाल बलुआ पत्थरों से बनाया गया है जिन्हें राजस्थान से लखनऊ लाया गया था। ये स्मारक आपको सामाजिक न्याय, बराबरी और मानवता के उपदेश देता हुआ दिखाई देगा।
हुसैनाबाद क्लॉक टावर
हुसैनाबाद घंटाघर, हुसैनाबाद इमामबाड़े के ठीक सामने स्थित है और रूमी दरवाजा से कुछ ही क़दम की दूरी पर स्थित है। 67 मीटर या 221 फीट ऊंचा यह टावर देश की सबसे ऊंची इमारतों में से एक माना जाता है। इस घंटाघर का निर्माण 1887 में करवाया गया था, जिसे रास्केल पायने ने डिजायन किया था। यह टॉवर भारत में विक्टोरियन - गोथिक शैली की वास्तुकला का शानदार उदाहरण है।
ज़ायका और सिर्फ ज़ायका
अब जब आप लखनऊ में हैं और आपने लखनऊ के दस्तरख्वान का लुत्फ़ नहीं लिया तो समझिये अभी आपकी यात्रा अधूरी है। यहां के अवधी भोजन का लोहा आज भी दुनिया मानती है। कहा जा सकता है ये शहर उनके लिए है जो मीठे और मांसाहार यानी नॉन वेज के शकीन हैं। आज लखनऊ अपने ख़ास टुंडे कबाब, बोटी कबाब, सींक कबाब,कोरमे, भुनी हुई चापों, नहारी कुल्चों,बिरयानी पुलाव और ज़र्दे के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।
मिठाई और पूड़ियां
जैसा कि हम बता चुके हैं लखनऊ अपने ख़ास अवधी दस्तरख्वान के लिए जाना जाता है जिसमें ज्यादातर नॉन वेज खानों को शामिल किया गया है। अब यदि आप प्योर वेजिटेरियन हैं तब भी कोई चिंता की बात नहीं है आप लखनऊ में खस्ते कचौरियों पूड़ियों और मठ्ठे का जायका ज़रूर लें।
मिठाई और पूड़ियां
ये तस्वीर है शहर के चौक स्थित काली जी के मंदिर के बेसमेंट में बनी दुकान कि। ये दूकान अपनी ज़ायकेदार पूड़ियों के लिए जानी जाती है। यहां निर्मित पूड़ियों को शुद्ध देसी घी से तैयार किया जाता है। इस दुकान कीख़ासियत यहां परोसी जाने वाली कद्दू की तरी वाली सब्जी है। इसके अलावा आप लखनऊ में फीरनी, जर्दे और शाही टुकड़े का ज़ायका ज़रूर लें।
शॉपिंग
शहर-ए-लखनऊ करीब करीब आपने घूम लिया, इमारतों को भी आपने देख लिया, शहर के लाजवाब खाने और ज़ायकों को भी आपने चख लिया । क्या इन बातों में कुछ छूटा तो नहीं? ज़रा दिमाग पर ज़ोर दीजिये। "शॉपिंग" जी हां सही पहचाना आपने हम बात शॉपिंग की ही कर रहे हैं। अगर आप लखनऊ में हों और आपने वहां कि ज़री की साड़ियाँ नहीं खरीदी आपने चिकन का सूट नहीं लिया तो हम यही कहेंगे आपका लखनऊ का टूर अधूरा है। आज लखनऊ जहां अपनी बेमिसाल इमारतों और लाजवाब खाने के लिए जाना जाता है तो दूसरी तरफ शॉपिंग के भी मामले में इसका कोई जवाब नहीं है।