जीवन के दो सत्य एक जन्म और दूसरा मृत्यु जिन्हे झुठलाया नहीं जा सकता है। धरती पर जन्मा हर एक प्राणी अपनी जीवन अवधि पूरी करने के बाद मृत्य प्राप्त करता है। जिसके बाद की दुनिया क्या होती है, किसी को कुछ नहीं पता। बाकी जीवों की तुलना में मानव अपने जीवन को सबसे अलग बनाने में सफल हो पाया है।
इसलिए वो समय के साथ-साथ काफी चीजें विकसित कर पाया।आज मनुष्य विभिन्न धर्मों व संप्रदायों में बंटा हुआ है, जो जन्म से लेकर मृत्य तक अलग-अलग रीति रिवाजों व परंपराओं का अनुसरण करते हैं।
यहां है एकमात्र हिन्दुओं का कब्रिस्तान
भारत में एक बड़ी आबादी हिन्दूओं की है, जिसके बाद मुस्लिम, सिख, ईसाई धर्म से जुड़े लोग आते हैं। इन धर्मों के अपने अलग रीति रिवाज हैं। मरणोपरांत जहां हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार ( पवित्र अग्नि को समर्पित) किया जाता है। वहीं ईसाई व मुस्लिम धर्म में शवों को दफनाने की परंपरा है। लेकिन आज हम आपको एक ऐसी जगह के बारे में बताने जा रहे हैं जहां हिन्दूओं को जलाने की बजाय दफ़नाया जाता है । जानिए इसके पीछे की रोचक कहानी।
कानपुर का कब्रिस्तान
आपको जानकर थोड़ा अजीब जरूर लग सकता है कि भारत में एक ऐसी भी जगह है, जहां हिन्दू धर्म के लोगों को जलाया नहीं बल्कि दफनाया जाता है। शवों को दफनाने की परंपरा नई नहीं है बल्कि ऐसा 86 सालों से किया जा रहा है। यह कब्रिस्तान भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर शहर में स्थित है। जिसके बारे में शायद ही ज्यादा लोगों को पता हो। हिन्दूओं के इस कब्रिस्तान को सन् 1930 में बनवाया गया था। जिसे बनवाने का श्रेय उस समय के बड़े समाजसेवी स्वामी अच्युतानंद को जाता है।
क्यों बना यह हिन्दू कब्रिस्तान ?
इस कब्रिस्तान को बनाने के पीछे एक दर्दनाक कहानी जुड़ी है। कहा जाता है कि सामाजिक मतभेव व छूत-अछूत जैसी प्रथाओं के चलते दलितों पर काफी ज्यादती की जाती थी। यहां तक की समाज के निचले वर्ग को श्मशान में दाह-संस्कार तक की इजाजत नही थी। जिस कारण समाजसेवी स्वामी अच्युतानंद को यह कब्रिस्तान बनाना पड़ा। इस कब्रिस्तान को 'स्वामी अच्युतानंद कब्रिस्तान' भी कहा जाता है।
सन् 1930 के दौरान
साल 1930 के दौरान स्वामी अपने कानपुर के दौरे पर थे। चूंकि स्वामी अच्युतानंद एक समाज सेवी थे, इसलिए दलितों का हाल जानने के लिए वे भ्रमण किया करते थे। एक बार की बात है उन्हें एक दलित बच्चे के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए भैरव घाट जाना था। लेकिन घाट के पण्डों ने उस उस दलित परिवार से दक्षिणा के रूप में एक मोटी रकम की मांग कर दी। जो वो परिवार दे न सका। जिस कारण स्वामी की बहस उस पंडित हो गई।
स्वामी का दृढ़ निश्चय
पण्डों से बहस के बाद स्वामी ने उस दलित बच्चे का दाह संस्कार पूरे विधि विधान से करवाया। और शव को गंगा में प्रवाहित कर दिया। लेकिन उसी बीच उन्होंने के दृढ़ निश्चय भी किया, कि वे अलग दलितों के लिए कब्रिस्तान का निर्माण करवाएंगे। कब्रिस्तान की जमीन के लिए स्वामी ने अंग्रेज अफसरों के सामने प्रस्ताव रखा। जिसके बाद अंग्रेजों ने कब्रिस्तान के लिए एक अलग जगह का स्वामी को दी।
स्वामी अच्युतानंद का पार्थिव शरीर
सन् 1932 में स्वामी अच्युतानंद की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था। आज यहां सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्कि हर जाति के लोगों को दफनाया जाता है। कानपुर में ऐसे 7 कब्रिस्तान मौजूद हैं जहां हिन्दूओं को जलाया नहीं बल्कि दफनाया जाता है। जिसे देखने के लिए कई लोग यहां आते हैं। कानपुर की कुछ अद्भुत जगहों में यह कब्रिस्तान भी शामिल है।
एक हिन्दू कब्रिस्तान
यहां लगभग 86 वर्षों से हिन्दुओं के शवों को दफनाया जा रहा है। इसलिए अब इसे एक हिन्दू कब्रिस्तान ही कहा जाता है। लेकिन आपको जानकार हैरानी होगी कि इस कब्रिस्तान की रखवाली एक मुस्लिम परिवार करता है। इस कब्रिस्तान की खास बात यह है कि यहां हिन्दुओं के शवों को ही दफयाना जाता है, जिसकी पूरी जिम्मेदारी यहां की देखरेख करने वाले मुस्लिम परिवार की है। यह एकमात्र ऐसा हिन्दू कब्रिस्तान है जिसकी कब्र मुस्लिम खोदते हैं। कभी कानपुर आएं तो इस अद्भुत जगह को जरूर देखें।