ओडिशा के पुरी में भगवान सूर्य को समर्पित है कोणार्क मंदिर। कोणार्क शब्द कोण और अर्क शब्द से मिलकर बना है, कोण यानी कोना या किनारा और अर्क का अर्थ सूर्य होता है और इस शब्द का मतलब सूर्य का किनारा है। ओडिशा में यह इकलौता स्मारक है, जिसे 1984 में यूनिस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल किया गया है। मंदिर के गहरे रंग के लिए इसे काला पगोडा भी कहा जाता है। इतिहासकार मानते है की ये 750 से भी ज्यादा पुराना है, जिसका निर्माण 1250 ई. में गांग वंश राजा नरसिंहदेव प्रथम ने कराया था। अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा है की राजा नरसिंह देव ने 12 साल के पूरे राजस्व को मंदिर के निर्माण में ही लगा दिया था।
अगर आप ओडिशा घूमने की योजना बना रहे हैं तो कोणार्क मंदिर जरूर जायें। इस मंदिर की खास बात यह है कि इसको पूर्व दिशा की ओर ऐसे बनाया गया है कि सूरज की पहली किरण मंदिर के प्रवेश द्वार पर पडती है। कलिंग शैली में निर्मित इस मंदिर की संरचना रथ के आकार की है। इस रथ में कुल 12 जोड़ी पहिए हैं। एक पहिए का व्यास लगभग 3 मीटर का है। ये पहिए मंदिर के मुख्य आकर्षण का केंद्र है, क्योंकि यह पहिए घड़ी की तरह समय बताने का काम करते हैं। इसलिए इस पहिए को धूप घड़ी भी कहा जाता है। इसके साथ ही इस रथ में सात घोड़े भी हैं, जिनको सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक माना जाता है। प्रवेश द्वार पर एक और चीज है जो सब का ध्यान आकर्षित करती है। दरअसल प्रवेश द्वार पर दो मुर्तियां हैं, जिसमें सिंह के नीचे हाथी है और हाथी के नीचे मानव शरीर है। इन मूर्तियों के जरिए मानव जीवन की समस्याओं को अनोखे तरीके से पेश किया गया है। जैसे सिंह गर्व का प्रतीक है और हाथी संपत्ति का, यहां ये बताने की कोशिश की गई है की गर्व और संपत्ति मानव का विनाश कर देती है।
माना जाता है की मंदिर का निर्माण समुद्र के किनारे किया गया था, लेकिन पिछली 8 शताब्दियों में समूद्र से इसकी दूरी बढ़ती चली गई। कहा जाता है इसके लगभग 2 किलोमीटर उत्तर में चंद्रभागा नाम की नदी बहा करती थी जो अब विलुप्त हो गई है। नदी का वहां होना प्रमाणित हो गया है। मंदिर से जुड़ी एक कहावत है की इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया, लेकिन निर्माण कार्य को पूरा नहीं कर पाया। मुख्य शिल्पकार दिसुमुहराना के बेटे धर्मपदा ने निर्माण पूरा किया लेकिन निर्माण पूरा होने पर उसने चंद्रभागा नदी में कूद कर जान दे दी थी।
कोणार्क मंदिर के बारे में एक रोचक तथ्य है की मंदिर के पत्थरों को आपस में जोड़ने के लिए लोहे की चादरों और चुंबको का इस्तमाल किया गया था। साथ ही मुख्य मंडी की चोटी में 52 टन चुम्बकीय लोहे को भी लगाया गया था। इसी वजह से मंदिर में भगवान सूर्य की प्रतिमा हवा में झूलती थी। बताया जाता है की पुर्तगाली नवीको ने इस चुंबक को मंदिर से निकाल लिया था क्योंकि इस चुंबक के कारण नौका चलन में कठिनाई होती थी। इस मंदिर के बारे में रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था यहां पत्थर की भाषा मनुष्य की भाषा से बढ़कर है।