इस वक्त पूरे भारतवर्ष में नवरात्रि का पावन त्योहार मनाया जा रहा है, जो नौ दिन तक चलने वाला हिन्दूओं का एक बड़ा धार्मिक उत्सव है, जिसमें मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। नवरात्रि के दशवे दिन विजयादशमी मनाई जाती है, मान्यता के अनुसार इस दिन मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था । इस खास दिन का एक नाम दशहरा भी है, जो पूरे भारत वर्ष में बड़े धूमधाम से आयोजित किया जाता है। दशहरे के दिन रावण का दहन किया जाता है। रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है। लेकिन भारत के हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी एक जगह है, जहां रावन दहन नहीं बल्कि लंकादहन की परंपरा है। यहां दशहरा कुछ खास अंदाज में मनाया जाता है। आगे जानिए इस खास उत्सव से जुड़ी कई दिलचस्प बातें।
कुल्लू का खास दशहरा
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हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी न सिर्फ अपनी प्राकृतिक सौंदर्यता के लिए जानी जाती है, बल्कि यहां आयोजित होने वाले धार्मिक उत्सव काफी खास होते हैं। यहां मनाया जाने वाला कुल्लू दशहरा पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। इस उत्सव की शुरुआत विजयादशमी के दिन होती है, और यह एक हफ्ते तक चलता है। इस खास त्योहार में हिस्सा लेने के लिए न सिर्फ देश बल्कि विश्व भर से लाखों पर्यटकों का आगमन होता है। यह त्योहार अब एक अंतरराष्ट्रीय त्योहार के रूप में सामने आया है।
कुल्लू दशहरा का इतिहास
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कुल्लू दशहरा का इतिहास कई साल पुराना है, जानकारी के अनुसार यह खास त्योहार 17वीं शताब्दी से संबंध रखता है, जब यहां के स्थानीय राजा जगत सिंह ने अपने सिंहासन पर भगवान रघुनाथ की मुर्ति स्थापित की थी। जिसके बाद से भगवान रघुनाथ को घाटी का मुख्य देवता माना जाता है।
पौराणिक किवंदती
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पौराणिक किवंदती के अनसार, जब महर्षि जमदग्नी कैलाश से वापस आ रहे थे, तो उनके सर पर एक बड़ी टोकरी थी, जिसमें 18 देवताओं की मूर्तियां थीं। लेकिन जब वेचंद्रखनी दर्रे को पार कर रहे थे, तभी तेज तूफान आया और सभी मूर्तियां कुल्लू घाटी की अलग-अलग जगह में बिखर गईं। बाद में मूर्तियां घाटी में रहने वाले लोगों को दिखीं, जिन्हे उन्होंने भगवान का रूप माना, और उनकी पूजा करने लगे। इस स्थल से एक और किवदंती जुड़ी है, माना जाता है यहां कभी राज करने राजा जगत सिंह को एक दिन पता चलता है कि यहां के किसी किसान के पास कई खूबसूरत मोती हैं। राजा ने उन मोतियों को हासिल करने के लिए फरमान जारी किया कि या तो किसान मोती राजा को दे या अपनी मौत के लिए तैयार हो जाए। पर असलियत में किसान के पास सिर्फ ज्ञान के मोती थे। राजा के हाथों मरने की बजाय किसान में आत्महत्या कर ली। लेकिन उस किसान का श्राप राजा को लग गया कि जब भी वो भोजन करेगा, चावल कीड़े बन जाएंगे और पानी खून। श्राप राजा को लगा और वो कुछ खा न पाता, जिससे उसकी हालत बिगड़ने लगी और वो गंभीर रूप ले बीमार पड़ गया। वैध-हकीमों का इलाज भी उसपर न चला, बाद में किसी ब्राह्मण ने उन्हें बताया कि भगवान राम ही उनकी रक्षा कर सकते हैं। जिसके बाद अयोध्या से भगवान राम की मूर्ति लाई गई, और भगवान के चरणअमृत से राजा की जान बची। बाद में जब मूर्ति को वापस ले जाया गया तो मूर्ति अयोध्या के लिए आगे बढ़ते ही भारी हो जाती और कुल्लू की तरह हल्की । आज यह प्रतिमा यहां आयोजित होने वाले दशहरा त्योहार का मुख्य आकर्षण हैं। इस दिन भगवान रधुनाथ की रथयात्रा पूरी घाटी में निकाली जाती है।
इस तरह मनाया जाता है उत्सव
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कुल्लू में मनाया जाने वाला दशहरा बहुत ही खास है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस दिन भगवान राम यहां और भी देवताओं को बुलाते हैं, इसलिए ग्रामीण अलग-अलग भगवानों की मूर्तियों को अपने सिर पर रखकर भगवान रघुनाथ के मंदिर पहुंचते हैं। सैकड़ों की संख्या में मूर्तियों को ढरपुर मैंदान में रखा जाता है। इन मूर्तियों में यहां की कुल देवी हिडिंबा भी होती हैं। एक हफ्ते तक चलने वाले इस उत्सव में कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। सभी लोग नए पोशान में नजर आते हैं। उत्सव के आखरी दिन बहुत सारी सूखी लकड़ियों को एकत्रित किया जाता है, फिर लंका दहन के रूप में उन लकड़ियों के ढेर को जलाया जाता है। इस खास दशहरे को देखने के लिए विश्व भर से पर्यटकों को आगमन होता है।
कैसे करें प्रवेश
कुल्लू आप परिवहन की तीनों साधनों की मदद से पहुंच सकते हैं। हवाईमार्ग के लिए आप कुल्लू-ंमनाली एयरपोर्ट का सहारा ले सकते हैं। रेल मार्ग के लिए आप जोगिंदर नगर रेलवे स्टेशन का सहारा ले सकते हैं। आप चाहें तो यहां सड़क मार्गों के जरिए भी यहां तक पहुंच सकते हैं। बेहतर सड़क मार्गों से कुल्लू आसपास के बड़े शहरों से जुड़ा हुआ है।