ऑफीस आवर्स ख़त्म होने वाले हैं या कई के खत्म भी हो गये होंगे। दिन भर काम कर थके हुए लोग योजना बना रहे होंगे घर जाकर खा पीकर आराम करने का। सही ना? ये काम तो आप रोज़ ही करते हैं, चलिए आज कुछ अलग करते हैं। जैसा कि आपको भी पता है आज गुरुवार है, मतलब उर्दू कैलंडर के अनुसार जुम्मे रात।
आपको पता है जुम्मे रात को दिल्ली की खास बात क्या होती है? नहीं? कोई बात नहीं चलिए हम आपको बताते हैं और एक छोटी सी यात्रा में भी लिए चलते हैं, गुरुवार की रात यानी जुम्मे रात की ख़ासियत बताने के लिए।
निज़ामुद्दीन दरगाह
Image Courtesy: Ekabhishek
जुम्मे की रात मतलब आज की रात, हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह पर अलग ही नज़ारा सजता है। मौसिक़ी की ख़ुशबु और कव्वाली की आवाज़ में निज़ामुद्दीन का दरगाह पूरी रात सज़ा रहता है। निज़ामुद्दीन दरगाह का रास्ता दिल्ली की सदियों पुरानी बस्ती की भीड़ और गंदगी भरी गलियों से गुज़रता है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया जिनकी स्मृति का यह दरगाह परिचायक है, को उनके चाहने वाले महबूब-ए-इलाही मतलब जिससे अल्लाह मोहब्बत करता है, के नाम से पुकारते हैं।
निज़ामुद्दीन दरगाह में दुआ करते मुरीद
अमीर ख़ुसरो जो उनके परम शिष्य थे, उन्होंने ही सबसे पहले हज़रत निज़ामुद्दीन को निज़ाम के नाम से पुकारा था। उनको हज़रत निज़ामुद्दीन से बेइंतहाँ मोहब्बत थी। उनकी मोहब्बत का हज़रत निज़ामुद्दीन को पता था इसलिए जब उनका देहांत हुआ, तब आमिर ख़ुसरो जी दिल्ली में नहीं थे और हज़रत निज़ामुद्दीन ने उन्हें अपने देहांत की खबर देने से माना कर दिया क्युंकि उन्हें पता था कि उनके इंतकाल की खबर सुनकर ख़ुसरो भी जीवित नहीं रह पाएँगे। निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु के कुछ ही समय बाद जैसे ही ख़ुसरो को उनके इंतकाल की खबर पता चली, अमीर खुसरो की आत्मा भी शरीर त्यागकर अपने पीर से मिलने चली गई।
जुम्मे रात में सजा निज़ामुद्दीन दरगाह
ख़ुसरों के दर्द का अंदाज़ा यहाँ गाये जाने वाली कव्वालियों से पता लगाया जा सकता है। हर जुम्मे रात ख़ुसरो की लिखी हुई कव्वालियों से यहाँ का दरबार सजता है। लोग हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में दुआ करने से पहले ख़ुसरो की मज़ार पर माथा टेकते हैं और फिर बड़े दरबार का रुख करते हैं।
आप जैसे ही हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह की तंग गलियों में दाखिल होंगे, आपको ऐसा लगेगा कि आप रोज़ की दिल्ली, यानी इमारतों और गाड़ियों वाली दिल्ली को कहीं पीछे छोड़ किसी और दुनिया में आ गये हैं। यहां महकती अगरबत्तियाँ, इत्र, फूल और मुग़लई खाने की ख़ुशबू किसी भी व्यक्ति की तबीयत ख़ुश कर देते हैं।
कव्वाली गाते मुरीद
यहाँ गायी जानी वाली कव्वाली, अमीर खुसरो की तारीफ़ में लिखे गए शब्द हैं जो एक तरफ़ तो खुसरो की शायरी, उनकी गज़लों की तारीफ़ करते हैं, वहीं निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति उनके समर्पण और प्रेम को बयां करते हैं। आज भी इस दरगाह में हज़रत निज़ामुद्दीन और अमीर खुसरो के अलौकिक रिश्ते को याद कर हर जुम्मे रात यानी आज के दिन 'छाप, तिलक सब छीनी', आज रंग है री', 'दमादम मस्त कलंदर' जैसी यादगार कव्वालियां गाई जाती हैं, जिसे सुनने के लिए हज़ारों लोग यहां इकट्ठे होते हैं। कव्वलियों को सुन कुछ लोग अलग ही दुनिया में खो जाते हैं, तो कुछ की आँखें नम हो जाती हैं।
यहां पहुँचने के लिए सबसे नज़दीकी मेट्रो स्टेशन जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम है।
कव्वाली गाता कलाकार
नोट: यहाँ आप कोई फैन्सी चप्पल ना पहन कर जायें क्युंकि आपको चप्पल बाहर ही उतारने होंगे। यहाँ तस्वीर लेने की मंज़ूरी है, पर बार बार अपने कैमरे का इस्तेमाल कर किसी को परेशान मत करियेगा क्युंकि यह एक आस्था का केंद्र है। यहाँ अपने साथ सर ढकने के लिए कोई कपड़ा या रुमाल ज़रूर लेकर जाएँ।
यहाँ हर धर्म, राज्य, देश और विदेश से लोग इन कव्वलियों के जादू में खोने को आते हैं। यहाँ आने वाले लोगों में एक अलग ही आस्था होती है, जो उन्हें यहाँ खींच ले आती है। आप भी अपने मन को सप्ताह भर के कामों से आराम दिलाने के लिए, आस्था में डूब एक अलग अनुभव के लिए निकल पड़िए निज़ामुद्दीन दरगाह के रास्ते पर, जहाँ आपको पता चलेगा कि 'इबादत का नशा क्या होता है'।
अपने महत्वपूर्ण सुझाव व अनुभव नीचे व्यक्त करें।
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