इसे कोस मिनार या मील के खंभे भी कहते हैं, मिनार का इस्तेमाल सड़क के किनारे एक मील की दूरी दर्शाने के लिये सदियों से किया जा रहा है। एक कोस 1.1 मील या 3.2 किमी के बराबर होता है. वे पहले शेर शाह सूरी, अफगान शासक द्वारा बनाए गए थे। देश की लंबाई-चौड़ाई पर स्थित महत्वपूर्ण मार्गों पर इस परंपरा की शुरुआत मुगल शासकों द्वारा की गई।
शासकों ने मिनारों का इस्तेमाल सिर्फ दूरी को मापने के लिये नहीं बल्कि थके हुए यात्रियों को आश्रय प्रदान करने के मकसद से भी किया गया। ये मिनार ईंटों या पत्थरों से बनी होती हैं जिन पर चूने का प्लास्टर होता है, जो प्लेटफार्मों पर बनी होती हैं। इनकी ऊंचाई 30 फुट होती है।
मिनारों का इस्तेमाल विशाल साम्राज्य में संचार व्यवस्था को बनाए रखने के लिये भी किया जाता था। इस कार्य प्रणाली का इस्तेमाल एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक संदेश पहुंचाने के लिये किया जाता था, तब तक जब तक संदेश अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच न जाये। कभी-कभी मिनार के आस-पास छोटे लॉज या सराये बना दिये जाते थे, ताकि रात को यात्रा करने वाले यात्री आराम कर सकें।
इनमें से कुछ मिनारों का निर्माण जीटी रोड पर किया गया, जिनकी शुरुआत लाहौर से हुई और करनाल होते हुए दिल्ली तक लगायी गईं। इनमें से एक को करनाल में प्लॉट नंबर 79 के पास स्थित था। एक सराय का निर्माण घरौंदा में किया गया, जो शहर से 12 मील की दूरी पर दक्षिण में स्थित है।