'देवताओं की भूमि' उत्तराखंड को कई पौराणिक व धार्मिक कथाओं के लिए भी जाना जाता है। यहाँ की बहुत सारी जगहें सिर्फ़ यात्रियों के घूमने के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि अपने धार्मिक स्थल होने के लिए भी है।
उत्तराखंड कई नदियों का उदगम स्थल होने के साथ साथ कई नदियों का संगम स्थल भी है। हर जगहों के पीछे कोई ना कोई रहस्यमय कहानियाँ हैं। त्रियुगीनारायण मंदिर भी इन्हीं पौराणिक जगहों में से एक है जो उत्तराखंड के त्रियुगनारायण गाँव में स्थित है। यह गाँव रुद्रप्रयाग जिले का एक हिस्सा है।
भगवान शिव जी और देवी पार्वती के विवाह की चित्रित तस्वीर
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कहा जाता है की त्रियुगीनारायण मंदिर भगवान शिव जी और पार्वती जी के विवाह का स्थान है। इस मंदिर की ख़ासियत है कि इसके अंदर जलने वाली अग्नि सदियों से जलती आ रही है, जो कभी नहीं बुझी। कहा जाता है की इसी अग्नि के समक्ष भगवान शिव जी और पार्वती जी की शादी हुई थी। इसलिए इसका नाम त्रियुगी(तीन युगों से जलने वाली आग) पड़ गया। जैसा की यह अग्नि नारायण मंदिर में प्रज्वलित है, इसे त्रियुगीनारायण मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।
कथाओं के अनुसार, देवी पार्वती शिव जी की पत्नी थीं जो अपने पूर्व जन्म में शिव जी की ही पत्नी देवी सती थीं, पर तब उन्होंने अपने पिता द्वारा अपने पति शिव का अपमान करने की वजह से भरी सभा में अग्नि में कूद कर आत्मदाह कर लिया। अगले जन्म में उन्होंने राजा हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और भगवान शिव को अपनी सुंदरता से रिझाने की कोशिश की।
त्रियुगीनारायण मंदिर
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भगवान शिव जी ने उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया और उनकी सारी मेहनत व्यर्थ हो गयी। फिर अंततः उन्होंने गौरी कुंड में घोर तपस्या की और शिव जी को प्रसन्न किया। उनकी मेहनत, सुंदरता और प्यार को देखते हुए उन्होंने भी उनके लिए अपने प्यार को कबूल कर लिया। ऐसी मान्यता है कि आज का गुप्तकाशी जो केदारनाथ के मार्ग में है, वह जगह है जहाँ भगवान शिव जी ने देवी पार्वती के सामने अपने प्रेम का इज़हार किया था। गुप्तकाशी मंदाकिणी नदी के किनारे पर बसा है।
अंततः दोनो का विवाह राजा हिमवत के मार्गदर्शन में त्रियुगनारायण में हुआ। कथाओं में कहा जाता है की, भगवान विष्णु खुद ही देवी पार्वती के भाई के रूप में और भगवान ब्रह्मा पंडित के रूप में उस भव्य शादी में सम्मिलित हुए थे। हज़ारों की संख्या में साधु संत और देवी देवता इस भव्य समारोह के साक्षी बने। दिलचस्प बात यह की विवाह के वक्त उन्होंने जहाँ पर स्नान किया था वे जगहें अब उत्तराखंड में ब्रह्मकुंड, रुद्राकुंड और विष्णुकुंड के नाम से जाने जाते हैं।
गुप्तकाशी के समीप मंदाकिणी नदी
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भक्तगण जो भी वहाँ जाते हैं, अखंड धुनि(हमेशा जलने वाली अग्नि) में हवन सामग्री डालते हैं और उस अग्नि को राख को प्रसाद के रूप में लेते हैं। यह मंदिर इसलिए उत्तराखंड का अखंड धुनि मंदिर कहलाता है। लोग गौरी कुंड के दर्शन के लिए भी जाते हैं जो यहाँ से सिर्फ 5 किलोमीटर की दूरी पर है।
सरस्वती कुंड भी इसी मंदिर के पास ही है जो बाकी तीनों कुंडों के जल का मुख्य स्रोत है। कहा जाता है कि सरस्वती कुंड की उत्पत्ति भगवान विष्णु जी के गर्भनाल से हुई थी। लोगों में विश्वास है की अगर कोई बेऔलाद दंपत्ति यहाँ के दर्शन के लिए आता है तो उनकी समस्या दूर होने का उनको आशीर्वाद मिलता है। जैसा की यह भगवान शिव जी और देवी पार्वती जी का विवाह स्थल है, यह मंदिर विवाहित दंपत्तियों के लिए मत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है।
ठंड के समय जमी हुई गौरी कुंड
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त्रियुगीनारायण मंदिर पहुँचें कैसे?
मार्ग द्वारा: त्रियुगीनारायण मंदिर ट्रेकिंग द्वारा या सोनप्रयाग के रास्ते द्वारा पहुँचा जा सकता है। त्रियुगीनारायण सोनप्रयाग से 12 कोलिमीटर की दूरी पर है।
सोनप्रयाग, देहरादून या ऋषिकेश से सड़क के रास्ते द्वारा आराम से पहुँचा जा सकता है। देहरादून से यह 251 किलोमीटर की दूरी पर है और ऋषिकेश से 212 किलोमीटर की दूरी पर।
यात्रा का सही समय
यात्रीगण त्रियुगीनारायण की यात्रा अक्तूबर से मार्च के महीने तक कर सकते हैं।
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