पश्चिम बंगाल में व्यापक रूप से देवी काली की पूजा की जाती है। पूरे राज्य में बड़ी धूमधाम से काली पूजा का आयोजन किया जाता है। ये बंगाल के सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। 18वीं शताब्दी में राजा कृष्णचंद्र ने पश्चिम बंगाल में काली पूजा की शुरुआत की थी। 19वीं शताब्दी में काली पूजा को ज्यादा लेाकप्रियता मिली। तब तक पश्चिम बंगाल में काली पूजा को पूरे गौरव और धूमधाम से मनाया जाने लगा।
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काली पूजा देवी काली के सम्मान में की जाती है। इस पूजा में देवी काली की विशाल मिट्टी की प्रतिमा की स्थापना कर पूरे राज्य में पंडाल लगते हैं। रातभर पंडाल में लोगों पंडाल में भजन कीर्तन करते रहते हैं। इस मौके पर यहां नृत्य, संगीत और आतिशबाज़ी की जाती है। देवी काली को जलपुष्प, मिठाई और पशु का रक्त और मांस अर्पित किया जाता है।
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काली मां को बुरी नज़र और बुरी शक्तियों विनाश के संहारक के रूप में जाना जाता है। यहां उन्हें भद्रकाली, चामुझडा, शासन काली और दक्षिणा कलिका के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिम बंगाल में नृत्य करते हुए मां काली की प्रतिमा के पैरों में भगवान शिव की लेटी हुई प्रतिमा होती है।
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मां काली का स्वरूप काला है जोकि भगवान शिव का ही एक रूप है। काली मां की चार भुजाएं और महाकाली के रूप में दस भुजाएं हैं। उनकी आंखों में लाल रंग, खुले बाल और मुंह से जीभ बाहर निकली हुई है। आइये जानते हैं पश्चिम बंगाल में स्थित काली मां के प्रसिद्ध मन्दिरों के बारे में
दक्षिणेश्वर काली मंदिर
बंगाल में कोलकाता के निकट दक्षिणेश्वर काली मंदिर में मुख्य रूप से मां काली की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण रानी रशमोनी ने 1847 से 1855 के बीच कराया था। इस स्थान पर रामकृष्ण परमहंस ने आराध्य देवी जगदीश्वरी काली माता ठकुरानी की उपासना की थी। हुगली नदी के तट पर 12 प्रसिद्ध शिव मंदिर स्थापित है वहीं दूसरी ओर इसके घाट है जिसे बंगाल की वास्तुकला में नवरत्न शैली में बनाया गया है। मंदिर के गर्भगृह में काली मां के रूप भवतरानी हैं।
कालीघाट मंदिर
कालीघाट मंदिर कोलकाता का बेहद सुप्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि कालीघाट के नाम पर ही कलकत्ता शहर का नाम पड़ा है। इस मंदिर को 19वीं शताब्दी में राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। ये भारत के 51 शक्तिपीठों में से एक है। बंगाल के अन्य मंदिरों की तरह इस मंदिर में काली मां की मंदिर कुछ अलग है। इस मंदिर के प्रमुख सोष्ठि तला है जहां सभी पुजारी महिलाएं हैं, नातमोंदिर, जोर बंगला, हरकठ तला, राधाकृष्णा मंदिर और कुंदुपुकुर है।
कंकालितला मंदिर
रबींद्रनाथ टैगोर स्कूल और आश्रम एवं शांतिनिकेतन से 10 किमी की दूरी पर स्थित है कंकालितला मंदिर जो देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस स्थान पर देवी सती का कंकाल यानि कमर का हिस्सा गिरा था।
कोपाई नदी के तट पर देवी के मंदिर को गर्भगृह के रूप में जाना जाता है। कहा जाता है कि देवी एक प्राकृतिक तालाब के तल में स्थित हैं। मंदिर तालाब के पास ही बना हुआ है जहां देवी काली की तस्वीर की पूजा-अर्चन की जाती है।
किरितेश्वरी मंदिर
भारत में 51 शक्तिपीठों में से एक है किरितेश्वरी मंदिर। इसे मुक्तेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। मूल मंदिर जोकि मुर्शिदाबाद का सबसे प्राचीन मंदिर है, उसे नष्ट कर दिया गया था। वर्तमान मंदिर को 19वीं शताब्दी में दर्पनारायण द्वारा बनवाया गया था।
ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शिव देवी सती के शरीर को लेकर जा रहे थे तब उनका किरित यानि मुकुट इस स्थान पर गिरा था। इसीलिए इस स्थान का नाम किरितेश्वरी पड़ा। काले पत्थर से बनी देवी की मूर्ति को इस मंदिर में स्थापित किया गया है।
हंगेश्वरी मंदिर
हुगली जिले के बंसबेरिया में स्थित आराध्य देवी का मंदिर है हंगेश्वरी। इस मंदिर को तांत्रिक सत्चक्रभेद की शैली में निर्मित किया गया है। इस मंदिर की संरचना मानव के शरीर से मिलती-जुलती है।
ये मंदिर पांच भागों में बंटा हुआ हे जो मानव शरीर के पांच भागों जैसे बजरक्षा, ईरा, चित्रिनी, पिंगला और सुषुम्ना को प्रदर्शित करता है। मंदिर के प्रांगण में अनंता बासुदेब मंदिर भी है। ये मंदिर पश्चिम बंगाल की अद्भुत टेराकोटा कलाकृति का मनोरम उदाहरण है।
त्रिपुरा सुंदरी
इस मंदिर में मां काली की पूजा त्रिपुरा सुंदरी के रूप में की जाती है। यहां पर देवी त्रिपुरा सुंदरी भगवान शिव की नाभि से निकले कमल के फूल पर विराजमान हैं। ये मंदिर कालीघाट की तरह बहुत ज्यादा प्रसिद्ध तो नहीं है लेकिन फिर भी ये कोलकाता के खास मंदिरों में से एक है।
मंदिर में त्रिपुरा सिंदूरी की मूर्ति के चरणों में हिंदू धर्म के पांच मुख्य देवताओं रुद्र,ईश्वरा, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर को पंच देवता के रूप में विराजमान हैं।
तारापीठ मंदिर
तारापीठ मंदिर भी देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां आराध्य देवी तारा हैं और इनकी चार भुजाएं हैं और उनमें एक भुजा में खोपड़ी है और उनकी जीभ बाहर निकली हुई है। ये मंदिर रामपुरघाट पर श्मशान घाट के बिलकुल विपरीत स्थित है। ऐसा माना जाता है कि देवी को रत्न और हड्डियां चाहिए होती हैं इसीलिए मंदिर के पास श्मशान घाट को बनाया गया है।
मंदिर के साथ ही एक पवित्र तालाब है जहां भक्त मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व स्नान करते हैं। मान्यता है कि इस तालाब के पानी में अद्भुत शक्तियां और ये मृत को भी जीवनदान दे सकता है।