केरल के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है चोट्टानिकारा भगवती मंदिर। ये मंदिर देवी के शक्ति स्वरूप को समर्पित है और यहां पर देवी के तीन मुख्य स्वरूपों सरस्वती, लक्ष्मी और मां दुर्गा की पूजा की जाती है। मंदिर में सुबह के समय मां सरस्वती, दोपहर को देवी लक्ष्मी और शाम को मां दुर्गा की पूजा की जाती है।
चोट्टानिकारा मंदिर, केरल के सबसे खूबसूरत मंदिरों में से एक है। माना जाता है कि इस मंदिर को स्वयं भगवान विश्वकर्मा जी ने बनाया था जोकि वास्तुकला के भगवान हैं। मंदिर में स्थापित देवी की प्रतिमा स्वयं अवतरित हुई है। जैसे कि मंदिर में एक दिन में तीन बार पूजा होती है वैसे ही तीनों बार मंदिर की सजावट भी बदलती है। सुबह के समय देवी को सफेद रंग के वस्त्रों में, दोपहर को गहरे लाल रंग की पोशाक में और रात को नीले रंग के वस्त्रों में पूजा जाता है।
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इस मंदिर के दो प्रमुख स्थान हैं जिन्हें कीज्कावु और मेलुकावु के नाम से जाना जाता है। मलुकावु मुख्य मंदिर है जहां देवी वास करती हैं और कीज्कावु मंदिर भद्रकाली को समर्पित है। यह मंदिर के तालाब के ठीक पास स्थित है।
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ऐसा कहा जाता है कि जिस स्थान पर आज वर्तमान मंदिर स्थित है वहां पर पहले घंना जंगल हुआ करता था और यहां पर अनेक बुरी आत्माएं और आदिवासी लोग भटकते थे। इन्हीं आदिवासियों में से एक था कनप्पम जो मां काली का भक्त था और वह मां काली को प्रसन्न करने के लिए हर शुक्रवार को एक गाय की बलि देता था।
मंदिर से जुड़ी है ये कथा
एक दिन जंगल में उसने एक गाय के बछड़े को देखा और मां काली को उसकी बलि देने का निर्णय किया। वह बछड़े की बलि ही देने वाला था कि उसकी बेटी ने उसे ऐसा करने से रोक लिया। कनप्पम अपनी बेटी से बहुत प्यार करता था और इसलिए उसने अपनी बेटी को उस बछड़े को रखने की इज़ाजत दे दी। कुछ दिनों बाद ही उसकी बेटी की मृत्यु हो गई जिससे कनप्पम पूरी तरह से टूट गया था।
आंखों में आंसू लिए कनप्पम ने अपनी बेटी के अंतिम संस्कार का फैसला किया किंतु वह अचंभित रह गया कि उसकी बेटी का मृत शरीर गायब हो गया था। एक पंडित ने उसे बताया कि उसने एक गाय को अपने बछड़े से अलग किया था और इसीलिए उसे यह सज़ा मिल रही है।
कनप्पम को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह उस गाय के बछड़े को ढूंढने लगा। कपन्नम को गाय के बछड़े की जगह दो पत्थर मिले। पंडित ने उसे बताया कि पत्थर दैवीय हैं और ये महाविष्णु और मां लक्ष्मी का प्रतिरूप हैं।
पंडित जी ने उसे बिना एक भी दिन व्यर्थ किए तुरंत इन पत्थरों की पूजा करने के लिए कहा और साथ ही ये भी कहा कि इससे ही तुम्हे अपने पापकर्मों से मुक्ति मिलेगी। कनप्पम की मृत्यु के बाद उन पत्थरों की पूजा करने के लिए कोई नहीं था। एक दिन एक घास काटने वाले व्यक्ति को जंगल में घास काटते समय कुछ मिला।
वह उस पत्थर पर अपने चाकू को रगड़ने लगा और उसने देखा कि पत्थर पर चाकू को रगड़ते हुए उस पत्थर से खून निकलने लगा था। इसे देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया है और उनसे यह बात दूसरों को जाकर बताई। तब एक पंडित ने उन्हें बताया कि यह पत्थर दैवीय हैं और तभी से इनकी पूजा की जाने लगी। आज उसी पत्थर को चोट्टानिकारा मंदिर में प्रमुख ईष्ट के रूप में पूजा जाता है।
चोट्टानिकारा का मूकंबिका मंदिर
आदि शंकराचार्य को यह अहसास हुआ कि केरल में देवी सरस्वती को समर्पित एक भी मंदिर नहीं है। इसका कारण जानने के लिए वह कर्नाटक की चामुंडी पहाडियों की ओर चल पड़े और वहां जाकर वह देवी का ध्यान करने लगे। आदि शंकराचार्य की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें दर्शन दिए और उनसे पूछा कि उन्हें क्या चाहिए? शंकराचार्य ने कहा कि वो उन्हें अपने गृह नगर केरल ले जाना चाहते हैं ताकि वहां के लोगों को उनकी पूजा के लिए दूर स्थानों पर ना जाना पड़े क्योंकि उम्रदराज़ लोगों को दूरगम स्थानों में यात्रा करने में कठिनाई होती है।
अनके प्रयासों के बाद देवी शंकराचार्य जी के साथ चलने के राज़ी हो गई लेकिन उन्होंने एक शर्त भी रखी। देवी ने शंकराचार्य जी से कहा कि मैं आपके पीछे-पीछे चलूंगीं लेकिन आपको पीछे मुड़कर नहीं देखना है कि मैं आपके पीछे आ रही हूं या नहीं। देवी ने कहा कि अगर आपने ऐसा कुछ किया तो मैं वहीं रूक जाऊंगीं और फिर आगे नहीं बढ़ूंगीं। इस बात पर शंकराचार्य राज़ी हो गए और उन्होंने यात्रा की शुरुआत की। जैसे ही दोनों कोदाचाद्री पर्वत पर पहुंचे वैसे शंकराचार्य को देवी की पायल की खनक सुननी बंद हो गई।
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देवी की पायल की खनक ही एकमात्र ऐसा संकेत था जिससे शंकाराचार्य जी को पता चलता कि देवी उनके पीछे ही चल रहीं हैं। पायल की खनक बंद होने पर कुछ समय तो शंकरा जी रूक गए और इंत़जार करने लगे लेकिन बज उन्हें माता की पायल की खनक नहीं सुनाई दी तो उन्होंने तुरंत पीछे मुड़कर देख लिया। उसी समय देवी वहीं रूक गईं और आज उसी स्थान पर कोल्लूर मूकंबिका मंदिर स्थापित है।
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शंकराचार्य जी को अपनी गलती का अहसास हुआ है और उन्होंने देवी से क्षमा मांगी और उन्हें आगे अपने साथ चलने की प्रार्थना की। कई देर तक शंकरा जी के याचना करने के बाद देवी मान गईं और उन्होंने कहा कि वह चोट्टानिकारा मंदिर में सुबक के समय आएंगी और भक्तों को दर्शन देकर दोपहर को वापिस कोल्लूर के मंदिर लौट जाएंगीं।तभी से चोट्टानिकारा मंदिर के द्वारा कोल्लूर मूकांबिका मंदिर से पहले खुल जाते हैं ताकि देवी यहां अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए प्रवेश कर सकें। इस मंदिर में मां सरस्वती की सफेद वस्त्रों में पूजा होती है।
मानसिक विकारों से मुक्ति
मानसिक विकारों और भूत-प्रेतों और बुरी आत्माओं से मुक्ति दिलवाने के लिए केरल का चोट्टानिकारा देशभर में प्रसिद्ध है। पीडित व्यक्ति को यहां मंदिर में पुजारी जी के पास लाया जाता है। तब पुजारी जी उससे बात करते हैं और उसे देवी के आगे समर्पण करने के लिए कहते हैं। पुजारी जी पीडित व्यक्ति के बाल का एक हिस्सा लेकर पुजारी जी मंदिर के एक पेड़ पर लटका देते हैं। ये इस बात का संकेत होता है कि बुरी आत्मा को कैद कर लिया गया है और अब वह व्यक्ति अपने रोग से मुक्त है।